आपातकाल और सुंदर - दूसरा भाग Ved Prakash Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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आपातकाल और सुंदर - दूसरा भाग

आपातकाल और सुंदर

दूसरा भाग

सुंदर अपने बड़े भाई जितेंद्र को रिहा करवाने की भरपूर कोशिश कर रहा था। इसी दौरान उसको अपने चाचा जोरावर सिंह और जितेंद्र के साथ हुई पूरी साजिश का पता चल गया। सुंदर को जब ज्ञात हुआ कि थानेदार दुर्जन सिंह ने ही इन सभी साज़िशों को अंजाम दिया है तो उसकी आँखों में आग के शोले जलने लगे जो दुर्जन को जलाकर भस्म करने के लिए काफी थे, लेकिन दुर्जन तो उप-कप्तान और कप्तान का पद पाते हुए सेवा निवृत हो गया था। युवा नेता की उस पर बड़ी कृपा थी, क्योंकि दुर्जन सिंह ने पुलिस की ताकत के बल पर पूरे क्षेत्र में भय और आतंक का राज फैलाया हुआ था, किसी की भी इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह प्रशासन या पुलिस के विरुद्ध कुछ बोल सके। क्षेत्र के सभी गुंडो और बदमाशों को दुर्जन सिंह का संरक्षण प्राप्त था और होता भी क्यो नहीं, वे सभी राजनैतिक नेता जो थे। सभी दुकानों पर उस राजनीतिक पार्टी का झण्डा एवं युवा नेता की फोटो टांगना जरूरी हो गया था, जो ऐसा नहीं करता उसको उजाड़ दिया जाता था अतः डर की वजह से सब लोग वैसा ही कर रहे थे जैसा उनको निर्देश मिलता था।

सेवा निवृति के बाद भी दुर्जन सिंह को एक महविद्यालय का अध्यक्ष बना दिया गया, जहां उसकी नजर हमेशा महाविद्यालय की सुंदर शिक्षिकाओं एवं छात्राओं पर रहती थी। उसके इस काम में महाविद्यालय के कुछ अध्यापक एवं कर्मचारी ही उसका साथ दे रहे थे जो भय और आतंक से बेबस महिलाओं और कन्याओं को मजबूर करते थे दुर्जन के पास जाने के लिए। सुंदर की बड़ी बहन सुषमा उसी महावियालय में संस्कृत की प्राध्यापिका थी, जो बहुत सुंदर थी। एक दिन अचानक दुर्जन की नजर सुषमा पर पड़ गयी और वह उसे अपनी हवस का शिकार बनाने के लिए लालायित हो उठा। दुर्जन सिंह ने अपने खास गुर्गे से कहा कि किसी भी तरह तुम सुषमा को मेरे पास लेकर आओ। छुट्टी का समय हो रहा था तभी चपड़ासी ने आकर सुषमा से कहा, “आपको अध्यक्ष जी ने बुलाया है।” सुषमा चपड़ासी के पीछे-पीछे चल पड़ी।

सुषमा को अध्यक्ष के कार्यालय में छोडकर चपड़ासी वापस चला गया। कार्यालय क्या पूरा घर ही था, तीन कमरों वाला जिसमे शयन कक्ष, अध्ययन कक्ष, रसोई एवं स्नानघर भी था। जब सुषमा ने कार्यालय के अंदर प्रवेश किया तब वहाँ एक व्यक्ति और बैठा था, दुर्जन सिंह के कहने पर सुषमा उस व्यक्ति के बराबर वाली कुर्सी खींच कर बैठ गयी। सुषमा के बैठते ही बराबर वाला व्यक्ति उठ कर चल दिया एवं दुर्जन सिंह को संबोधित करते हुए कहा, “अच्छा मान्यवर, अब मैं चलता हूँ, जब भी सेवक की आवश्यकता हो, आदेश दीजिएगा, सेवक उपस्थित हो जाएगा।” उस व्यक्ति ने जाते समय कार्यालय से बाहर निकल कर कार्यालय का दरवाजा बाहर से बंद कर दिया। बाहर से दरवाजा बंद होने पर सुषमा परेशान हो गयी एवं कहने लगी।, “सर, वह व्यक्ति शायद गलती से दरवाजा बाहर से बंद कर गया है।” दुर्जन एक भद्दी सी हंसी हंसा और उठ कर दरवाजा अंदर से बंद करके कहने लगा, “लो सुषमा जी अब मैंने दरवाजा अंदर से बंद कर दिया है।” सुषमा बुरी तरह से घबरा गयी और हाथ जोड़ कर जाने देने की विनती करने लगी, “सर, मुझे जाने दो, मुझे छोड़ दो, मुझ पर द्या करो” आदि आदि। लेकिन इनमे से किसी भी बात का असर दुर्जन सिंह पर नहीं हो रहा था। दुर्जन बोला, “सुषमा जी, बस थोड़ी देर की ही तो बात है, थोड़ी देर के लिए आप हमारा सहयोग करें और फिर चले जाना।” सुषमा बुरी तरह से घिर चुकी थी और आज उसको अपना बचना असंभव लग रहा था। दुर्जन निर्भीक, अत्याचारी व्यक्ति था, उसके मन में दया भाव तो बिलकुल भी नहीं था, इन्ही अवगुणों ने उसको थोड़ा लापरवाह भी बना दिया था। लोगों में अपना रौब बैठाने के लिए वह अपना रिवौल्वर सदैव मेज पर ही रखता था जिससे लोग देखें और उनके अंदर खौफ पैदा हो। सुषमा भी क्षत्राणी थी, उसके परिवार के लोग देश सेवा में लगे थे, क्षत्राणी होने के कारण उसको भी सभी तरह के हथियार चलाने का प्रशिक्षण दिया गया था। दुर्जन सिंह ने कहा, “देखो सुषमा, मेरे साथ किसी तरह की चालाकी नहीं चलेगी, अगर तुमने कोई भी चालाकी करने की कोशिश की तो मैं तुम्हारा हाल भी तुम्हारे चाचा जोरावर सिंह जैसा कर दूंगा। मैंने उसको इतना तड़पा-तड़पा कर मारा था कि खुद ही मौत की भीख मांग रहा था, या फिर तुम्हारा हाल तुम्हारी नवविवाहिता भाभी जैसा कर दूँ जहां हम पाँच लोगों ने उसकी नई नवेली इज्जत को तार-तार कर दिया था, उसे मार कर लटका दिया और तेरे भाई को ऐसा फंसा दिया कि वह पूरी उम्र जेल में ही सड़ता रहेगा। अब तू बता तू क्या चाहती है, थोड़ी देर मेरा सहयोग करके मेरे शयन कक्ष की शोभा बड़ा दे और फिर चुपचाप यहाँ से चली जाना।” बात करते समय दुर्जन अपनी पीठ सुषमा की तरफ करके खड़ा था, और कह रहा था कि यहाँ से कोई भी आवाज बाहर नहीं जाएगी तुम चाहे जितना चिल्ला लो।

दुर्जन सिंह की बातें सुनकर सुषमा का खून खौल रहा था और उसकी निगाह दुर्जन सिंह की पिस्टल पर ही गड़ी हुई थी, जब सुषमा के पास बचने का कोई भी रास्ता नहीं रहा और मौका भी था तब उसने दुर्जन की भरी हुई पिस्टल लपक कर उठा ली एवं उसे खोल कर छह की छह गोलियां दुर्जन की पीठ में उतार दीं। दुर्जन मर चुका था, सुषमा बुरी तरह घबरा गयी थी लेकिन फिर भी उसने अपने को संयत किया एवं सब कुछ ऐसा ही छोड़ कर पिस्टल अपने बैग में रख कर अंदर से दरवाजा कर धीरे से थपथपाया तो बाहर खड़े चपड़ासी ने दरवाजा बाहर से खोल दिया। सुषमा सामान्य व्यवहार करते हुए दरवाजे से बाहर निकल कर सीधी सुंदर के पास घर पर गयी और सुंदर को सारा किस्सा बता दिया। सुंदर सुषमा से पिस्टल लेकर स्वयं महाविद्यालय की तरफ चला गया और वहाँ उसने एक भयभीत करने वाली आवाज में पुकार कर लोगों से कहा, “मैंने दुर्जन को मार डाला, एक अन्यायी का मैंने अंत कर दिया।” इतनी आवाज लगाकर सुंदर वहाँ से फरार हो गया और उसने कसम खा ली कि जिस युवा नेता के कारण पुलिस प्रशासन और गुंडे मिलकर लोगों पर जुल्म एवं अत्याचार कर रहे हैं मैं उस युवा नेता को मार कर लोगों को उसके जुल्मों और अत्याचारों से मुक्त कराऊंगा। सुंदर ने कई बार उस युवा नेता की हत्या करने की कोशिश की लेकिन असफल रहा और इस बीच पुलिस ने सुंदर जैसे देशभक्त को डाकू घोषित कर दिया जब कि उसने कभी भी कोई भी डाका नहीं डाला था बस एक अत्याचारी से भारत माता को मुक्त करने की कसम खाई थी।

अगले भाग में पढ़ें, क्या सुंदर उस अत्याचारी को मार सका ????