(11) काकभुशुण्डिजी का लोमशजी के पास जाना और शाप तथा अनुग्रह पानादोहा : * गुर के बचन सुरति करि राम चरन मनु लाग।रघुपति जस गावत फिरउँ छन छन नव अनुराग॥110 क॥ भावार्थ:-गुरुजी के वचनों का स्मरण करके मेरा मन श्री रामजी के चरणों में लग गया। मैं क्षण-क्षण नया-नया प्रेम प्राप्त करता हुआ श्री रघुनाथजी का यश गाता फिरता था॥110 (क)॥ * मेरु सिखर बट छायाँ मुनि लोमस आसीन।देखि चरन सिरु नायउँ बचन कहेउँ अति दीन॥110 ख॥ भावार्थ:-सुमेरु पर्वत के शिखर पर बड़ की छाया में लोमश मुनि बैठे थे। उन्हें देखकर मैंने उनके चरणों में सिर नवाया और अत्यंत