नींब के पत्थर-- सो रहे तुम, आज सुख से, दर्द उनको हो रहा है। शान्त क्रन्दन पर उन्हीं के, आसमां- भी रो रहा है।। यामिनी के मृदु प्रहर में, दर्द-सी, पीड़ा कहानी। सुन रहा है आज निर्जन, चीखतीं-सी, हो रवानी।। देख लेना एक दिन ही, किलों के, खण्डहर बनेंगे। शान-शौकत के ठिकाने, धूल में, आकर मिलेंगे।। हो रहे हैं संगठित ये, जिगर में, बिल्कुल जमीं हैं। क्रान्ति का उद्घोष होगा, नींब के पत्थर, हमीं हैं।। है खड़ी बुनियाद हम पर, शीश पर, अपने धरैं हैं। संभलजा औ, आज मानव, आज भी, अपने घरैं है।।