रहीं सालती मन की गाँठें...कानपुर लौटकर जीवन सामन्य गति से चल पड़ा था। बैचलर क्वार्टर की गतिविधि भी सामान्य थी, किन्तु असामान्य कुछ प्रतीत होता था, तो वह था लक्ष्मीनारायण ओज़ाजी का व्यवहार। जब से लौटा था, मैं लक्ष्य कर रहा था कि वह मुझसे ही बचकर निकलने लगे थे। अब तक तो मैं ही उनसे कन्नी काट जाता था, अब वह काटने लगे थे। यह मुझे विचित्र-सा लगता। वह मुझसे बचकर निकल जाते, सम्यक् दूरी बनाकर रहते, बातें करते तो जल्दी-से-जल्दी खिसक जाने की फ़िराक़ में रहते। मुझे आश्चर्य हुआ तो एक दिन मैंने शाही से पूछा--'देखता हूँ कि