देस बिराना किस्त सात तो ... अब ... हो गया घर भी..। जितना रीता गया था, उससे कहीं ज्यादा खालीपन लिये लौटा हूं। तौबा करता हूं ऐसे रिश्तों पर। कितना अच्छा हुआ, होश संभालने से पहले ही घर से बेघर हो गया था। अगर तब घर न छूटा होता तो शायद कभी न छूटता.. उम्र के इस दौर में आ कर तो कभी भी नहीं। बस, यही तसल्ली है कि सबसे मिल लिया, बचपन की खट्टी-मीठी यादें ताज़ा कर लीं और घर के मोह से मुक्त भी हो गया। जिसके लिए जितना बन पड़ा, थोड़ा-बहुत कर भी लिया। बेबे और