नाम में क्या रखा है...

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शाम के साढ़े छः बजे थे। वो बस अभी ही कमरे में घुसी थी। पूरा दिन कितना तो थकान भरा रहता है, पहले ऑफ़िस की चकपक से जूझो, फिर रास्ते के ट्रैफ़िक की चिल्लपों...नर्क लगती है ज़िन्दगी...। ऐसे में उसे रवि किशन की फ़ेमस पंचलाइन ही याद आती है...ज़िन्दगी झण्ड बा, फिर भी घमण्ड बा...। अब वापस घर आती है तो लगता है मानो स्वर्ग में घुस रही हो...कम-से-कम वहाँ की शान्ति तो उसे स्वर्गिक ही लगती है...।